Sunday, May 21, 2017

“लड़कियाँ”

“लड़कियाँ”
एक्सप्रेसो या केप्युचीनो?
यही तो तुम्हारे पहले वाक्य थे मेरे लिए
उधर मैं सोच रहा था 
कोई इतनी भी खूबसूरत होती है क्या!!
ईमानदारी से कहूँ तो कोई उपमा ही न खोज पाया
शायद तुम ताड़ गई मेरे मन की बात को
इतना मुश्किल भी तो न था,
लड़कियाँ मर्दों के इन नजरों को पढ़ पढ़ कर ही बड़ी होती हैं
फिर तुम तो सौ में सौ वाली आइटम थी
आइटम?
तुम्हारा चौंकना मुझे आज भी याद है,
और यह मेरे लिए एक सबक भी कि
लड़कियाँ किसी शो रूम की बनारसी साड़ी या
मिठाई दुकान वाली रसमलाई नहीं होती
न ही खूंटी में बंधी गाय होती है....
तुम्हारे ही कहे वाक्य थे।
आज जब इतने दिनों बाद तुम मिली
और तुमने पूछा, एक्सप्रेसो या केप्युचीनो.......
तो याद तो आना ही था
शायद तुम मेरी नजरों से ही मुझे पढ़ लेती हो
तब ही तो कहे,
लड़कियाँ गूँथा हुआ आटा होती हैं,
एक बार गूँथ गई तो वापस कभी सूखा आटा नहीं बनती
जिंदगी एक सफर है, अनजाना सफर। जब आदमी सोचने लगता है, सब कुछ समझ गया, बड़ा विज्ञ हो गया, तभी प्रकृति हँसती हुई फिर कुछ नया से दो चार करा लेती है। छालावा तो बस छलावा ही रह जाता है। सफर तो चलता ही रहता है।

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