Sunday, May 21, 2017

“केप्युचीनो विथ क्रीम”

“केप्युचीनो विथ क्रीम”
(सूरजमुखी)
सूरजमुखी लैपटाप ऑन कर कुछ फूटेज दिखाती सूरज से बोली - “बागान बाड़ी, निर्माण सन 1910, एक अंग्रेज़ की मिल्कियत थी। सैंतालिस में इसे पटना के एक अमीर वकील बलदेव राय ने खरीदा। मगर वह पटना में एक नई कोठी बनाने ने लिए सन अस्सी में इसे बेच डाला। इसे वर्धमान के एक जमींदार बंगाली अतीन्द्रमोहन बागची ने खरीदा। बागची ने बागान बाड़ी को फिर से बनाया और रहने लगा। वह पार्टियां देता। कुछ लोग यहाँ जलवायु परिवर्तन के लिए भी आते। पंचानवे में अचानक उसने बागान बाड़ी गोल्डफिश नाम की एक कंपनी को बेच दिया। गोल्डफिश के मालिक कोलकाता के एक अंडरगारमेंट निर्माता मनसुख झुनझुनिया है। वह ऑर्डर पर गारमेंट बनाता है और दूसरी कंपनियों को बेचता है। कंपनियाँ सैंपल टेस्टिंग करती है फिर अपना लेबल लगाकर बाजार में बेचती है। गोल्डफिश सीधे बाजार में अपना उत्पाद नहीं बेचती।”
एक सांस में सब कुछ कहकर वह सूरज की रिएक्सन देखने रुकी। सूरज बड़े तन्मयता से सुन रहा था। आखिर कुछ देर बाद वह पूछा – “बागची ने अचानक कोठी बेची क्यों?”
“कोई वजह फाईल में दर्ज नहीं।”
“फिलहाल पुलिस की नजर जाने की वजह?”
“गोल्ड फिश ने इसे एक गोडाउन में तब्दील कर दिया। मगर एक हिस्सा, गंगा के किनारे वाला, गेस्ट हाऊस की तरह इस्तेमाल होता रहा। आला अफ़सरान यहाँ अमूमन कोलकाता दर्शन के वक्त आकर ठहरते। पिछले सप्ताह एक जोड़ी यहाँ ठहरने आई थी। संयोग से उनलोगों ने कुछ मानव हड्डियाँ बरामद की। लैब टेस्ट से यह उजागर हुआ लगभग बीस बाईस साल पहले के चोटिल वाले हड्डियाँ हैं। रिब्स में तेज धार वाले वैपन चलाने के निशानात मिले हैं।” सूरजमुखी बोली।
कुछ देर दोनों चुप रहे। दोनों सोच रहे थे। फिर अचानक ही पीछे से दोनों बाहों का घेरा बना सूरज पूछा – “इस केस में हमारी मलिका ए बेगम तस्वीर में कहाँ फिट होती हैं?”
“बेगम?”
“नहीं च्विंगगम।” सूरज चिढ़ाया।
सूरजमुखी ने लैपटाप बंद किया और बिस्तर से तकिया उठा लिया। सूरज भागा और बोला – “अरे तुम तो नाराज हो गई। असल में तुम तो च्विंगगम नहीं चॉकलेट हो।”
सूरजमुखी ने तकिया से पीठ पर एक तगड़ा धौल जमाया। सूरज छिटक कर बोला – “अगर मैं शोले का गाना गाता तो क्या गाता, पता है?”
“क्या?” सूरजमुखी झूठी नाराजगी दिखाती पूछी।
सूरज सूर में गाने लगा – “ कोई हसीना जब रूठ जाती है तो चॉकलेट से चॉकलेट बम हो जाती है।”
सूरजमुखी खिलखिलाकर हँसने लगी।
तब सूरज ने उसे फिर बाहों के घेरे में ले लिया और बड़े प्यार से देखते हुए बोला – “तुम तो मेरी सरगम हो।” सूरजमुखी भी प्यार में खो गई।
आदमी के जिंदगी में प्यार के क्षण बड़े कम होते हैं। मगर तब बड़ा क्रोध आता है जब इस छोटे से क्षण में भी कोई इंटरप्शन आ जाता है। मोबाईल बजते ही सूरजमुखी का चेहरा देखने लायक था। सूरज भी खूब बौखलाया। मगर रिंगटोन कुछ खास था। इंस्पेक्टर अनिल यादव ने फोन किया था। सूरजमुखी ने मजबूर होकर रिसीव किया। बाते होतीं रही। कुछ देर हूँ, हाँ सुनने के बाद सूरजमुखी ने मोबाईल रख दिया। फिर वह बोली – “अतीन्द्रमोहन बागची कोठी बेच भतीजी के पास बारबाडोज़ चला गया था। फिर उसकी कोई खबर नहीं।”
“खरीद-फरोख्त के सबूत पक्के हैं?” सूरज कुछ सोचता हुआ पूछा।
“लैंड रिकार्ड के मुताबिक हाउस टैक्स मनसुख झुनझुनिया के नाम है।” सूरजमुखी ने कहा।
“मनसुख झुनझुनिया की माली हालत कैसी है?”
“अब तो अच्छी है। कहते हैं वह अब अपनी गोल्डफिश नाम से ही अंडरगार्मेंट्स बाजार में उतरने की तैयारी में है।”
“उम्र कितनी है?”
“कोई साठ-बासठ साल।”
“यानि तब वह पंचानवे में कोई चालीस साल का रहा होगा। अच्छा ये बागची तब कितने साल का रहा होगा?”
“लगभग पैंतालीस। मतलब आज कोई सड़सठ। झुनझुनिया से पाँच-सात साल बड़ा। दोनों के बीच कोई कड़ी तो होगी।”
“चलो फिर एक बार बागान बाड़ी देखने चलते हैं। गंगा के किनारे है तो मनोरम तो होगा ही।” सूरज अचानक कुछ सोचता हुआ बोला।
“अचानक टूरीज्म ने अटैक किया क्या मैनेजर साहब?” सूरजमुखी ने चुटकी लिया।
“नहीं, मिजाज थोड़ा आशिक़ाना है। हम तुम और गंगा के किनारे बहती हवा।” सूरज नजर घुमाकर जवाब दिया।
“मिजाज आशिक़ाना? हुजूर फिर कोई नया बहाना तो नहीं?”
“कैसा बहाना?”
“क्या पता? वहाँ जाऊँ पता चले कि साहब पर्यटन के संभावना तलाशने निकले थे।” सूरजमुखी उठते हुए बोली।
“क्या गलत होगा, गंगा के हवा से थोड़ा सा रूमानी हो जाएंगे और अपनी नौकरी भी बजा लेंगे।” सूरज मुस्कुराते हुए बोला।
वे कोई आधे घंटे में बागान बाड़ी में पहुंचे। केयर टेकर हाल के फेरों के वजह से सूरज और सूरजमुखी से परिचित था। वे इस्टेट में घुसे। जैसा कि नाम था, यह बागान से घिरी एक कोठी थी। वे बागान होते गंगा के धार की तरफ बढ़े। सचमुच गंगा धार से खूब हवा आ रही थी। तभी अचानक एक मर्दाना आवाज आई – “ठहरो, कौन हो तुम दोनों? यहाँ किस तरह घुस आए?”
सूरजमुखी पलटकर देखी। वापस उस आदमी के पास आई। वह कोई तीस का था। कपड़ों से रईसी टपक रही थी। सूरजमुखी वापस आई फिर उसे घूरते हुए पूछी – “अगर यही सवाल तुमसे मैं करूँ तो?”
“क्या मतलब? मेरी ही इस्टेट में मुझसे पूछ रही हो?” वह भड़का।
“अच्छा तो जतिन झुनझुनिया हैं। मनसुखजी के भतीजे, उनके इकलौते वारिस। अखबार की तस्वीर इतनी साफ तो न थी कि एकबारगी देख कर पहचान लिया जाय।” सूरज मुस्कुराता हुआ बोला।
वह आदमी घूम कर सूरज को देखा। सूरज उसके घूमने की परवाह न कर पूछा – “वैसे, इस कोठी को आपके पिता ने कितने रुपए में खरीदा था?”
“अच्छा तो अखबार वाले हो। हमने पाँच लाख में खरीदा था।” जतिन व्यंग्य से उसी टोन में सीना फुलाते हुए कहा।
सूरज और सूरजमुखी मुस्कुराए। इसी का फायदा उठाते सूरजमुखी पूछी - “मगर एक बात अजीब लगती है। कोठी की कीमत बस पांच लाख? पंचानवे में भी ये कीमत तो कम ही लगती है। बागची राजी कैसे हो गया? कोई नस दबा ली थी?” जतिन के नेत्र सिकुड़ गए।
“जमींदार होने के बावजूद भी बागची कड़का चल रहा था। वह गेंबलिंग के लत का शिकार था। एक बड़े कर्ज के चुकान में उसने कोठी को आनन-फानन उठे दाम में ही बेच दिया।” जतिन सतर्क हो जवाब दिया।
“आपके पिता बागची को कैसे पहचानते थे?” सूरज पूछा।
“शहर के अमीरों का एक दूसरे को पहचानना कोई बड़ी बात तो नहीं। वैसे दोनों गोल्फ क्लब के मेम्बर होने के कारण ज्यादा एक दूसरे को पहचानते थे।”
“मेरा भी यही ख्याल था। अब बागची साहब कहाँ हैं?” सूरजमुखी ने पूछा।
“पक्की तो खबर नहीं। शायद बारबाडोज़ में अपने भतीजी के पास।”
“भतीजी क्यों? उसका कोई बेटा-बेटी नहीं?” सूरज चौंकता हुआ पूछा।
“एक तो नि:संतान ऊपर से विधुर। ले दे के रिश्ते में एक भतीजी ही तो है। वेस्ट इंडीज के क्रिकेट प्लेयर से शादी कर बारबाडोज़ चली गई।” जतिन ने कहा।
“आनन फानन यूं कोठी बेच इंडिया से कूच कर जाना, कुछ अजीब सा नहीं लगता?” सूरजमुखी ने सहज स्वर में पूछा।
“बहुत सवालात हो रहे हैं? फिराक क्या है?” जतिन झुंझलाया।
“नेक ही है, सस्ते में ख़रीदारी पर बधाई। वैसे, क्या पता बागची इंडिया लौट आया हो?” सूरजमुखी जतिन को एक गहरी दृष्टि दे बोली।
जतिन कुछ बोला नहीं। वह कुछ सोचने लगा। तभी केयर टेकर दौड़ता हुआ आया और बोला – “साहब, ये सूरजमुखी मैडम हैं और पुलिस से हैं। इसके पहले भी कई बार आई हैं। और ये सूरज साहब है टूरिस्ट डिपार्टमेन्ट में ऑफिसर हैं, ये भी एक बार पहले आए हैं।”
जतिन चौंक कर सूरज और सूरजमुखी को देखा। सूरजमुखी थोड़ा कौशल से मुस्कुराई।
“आप तो सुंदरता और बुद्धि की कॉम्बिनेशन हैं।” जतिन भी कौतुक से मुस्कुराया और सूरजमुखी से बोला।
“हाँ, और स्मार्ट भी।” सूरजमुखी नजर से नजर मिलाती हुई बोली। सूरज के चहरे में जलन सूरजमुखी को साफ नजर आई। वह सूरज को चिढ़ाने के लिए खुलकर हँसी।
जतिन भी खुलकर हँसा। वह फिर बोला – “मुझे स्मार्ट लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। वैसे मैं अभी बेचेलर हूँ।”
इससे पहले सूरजमुखी कुछ कहती, सूरज चिढ़कर बोला – “जरूरत से ज्यादा स्मार्ट।”
सूरजमुखी ने इस तपिश को महसूस किया। कुछ देर वह रुकी फिर उसे नजरअंदाज कर और मुलायम स्वर में पूछी - “इस हवेली से जुड़ी एक जेटी है न!”
“हाँ, हमारी एक छोटी सी स्टीमर भी है। इसमें दो केबिन भी है। आप देखना चाहेंगी?” जतिन कुछ उत्साह से सूरजमुखी को देख बोला।
सूरजमुखी एक चोर नजर सूरज को देखी, फिर बोली – “देखना तो चाहती थी, मगर रहने दीजिये, फिर कभी।”
“फिर कभी क्या? इसमें एक छोटा सा किचेन केबिनेट भी है। आपलोगों को एक-एक कप कॉफी पिलाये बगैर तो न छोड़ेंगे। इसी बहाने हमारा स्टीमर भी टूरिस्ट ऑफिसर साहब देख लेंगे, कि कोई आईडिया भी दे सकें।” जतिन दोनों को देख बोला।
सूरज के चेहरे के भाव फिर बदल गए। वह विद्रुप को समझ बोला – “चलिये देखते हैं कॉफी टूरिस्टों को लुभा सकती है या नहीं।” फिर वे चल पड़े।
स्टीमर सभी को लेकर चलने लगी। यह वाकई काफी मनोरम अनुभव था। दोनों केबिन वास्तव में हाई फ़र्निश्ड थे और जरूरत के हर साजो सामान मौजूद थे। पीछे एक छोटा सा किचेन भी था। कुछ देर बाद एक वर्दी पहना नौकर खाने के ढेरों सामान ले आया। फिर अंत में आई कॉफी।
“वैसे तो इंडिया में केप्युचीनो ही प्रचलित है। दूध वाली कॉफी। अमरीकी ही एक्सप्रेसो ज्यादा पसंद करते हैं यानि ब्लैक कॉफी। आज मैं आपको अपनी स्टाईल की केप्युचिनो ही पिलाता हूँ, इसमें क्रीम एडेड है। सही हिंदुस्तानी में अगर कहूँ तो, मलाई मार के।” जतिन बोला और अपने नौकर से इशारा किया।
पल भर में सुंदर कप में क्रीम डिजाईन की हुई कॉफी आ गई। कॉफी बहुत उम्दा बनी थी। सभी ने कॉफी पी। फिर वे स्टीमर के डॉक पर आ गए। स्टीमर शहर से काफी दूर आ चुकी थी। बहुत तेज हवा चल रही थी। सूरजमुखी के बाल हवा में उड़ने लगे, फैलने लगे। सूरजमुखी बालों को संभालने की कोशिश करने लगी। अभी वह संभलती कि अचानक त्योराकर गिर पड़ी। सूरज उसे देख लपका पर ज्यादा करीब न जा पाया। उसके सर चकराने लगे और वह भी धड़ाम से गिरकर बेहोश हो गया।
जतिन मुस्कुराया – “केप्युचीनो विथ क्रीम।”
अमूमन मैं #क्रमश:# के खिलाफ हूँ। इससे पहले अब तक की सूरजमुखी की सारी कड़ियाँ अपने आप में एक मुकम्मल कहानी है। पर इस बार, कहानी कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई। छोटा करूँ तो मेरे हिसाब से कहानी के साथ अन्याय हो जाय। बिन तोड़े गुजारा नहीं। पाठक मजबूरी को समझ स्वीकारेंगे, इसी उम्मीद के साथ। जल्द ही शेष हिस्सा पेश होगा, वादा रहा।

"अमृतलाल की अमृता" (कहानी)

"अमृतलाल की अमृता" (कहानी)
हिन्दी टीचर अमृतलाल का उम्र कुछ ज्यादा तो नहीं था, बस दिखता था। मोटी काली फ्रेम की चश्मा और खद्दर का कुर्ता। वह भी सरकारी खादी भंडार से सरकारी रसीद में खरीदी। देखते ही लगता महाशय साठ के दसक में ही लटके हुए हैं। लड़कियाँ भी उसे अमृतलाल के नाम से कम और मुंगेरीलाल के उपनाम से ज्यादा पुकारती थीं। मगर अमृतलाल दिखता भले जो हो, था होशियार ही। इसी बहाने चुपके से आँखों में सपनों के बीज डाल देता। स्टाईल ही कुछ अलग था। गाहे-बेगाहे हिन्दी में इंग्लिश घुसा देता। पूछने पर हँसकर जवाब देता, नदी का गंतव्य सागर होता है, पहाड़ देखकर रुक गई तो झील बन गई और साईड से निकलकर चली तो एक दिन सागर से मिल गई।
वैसे भी मँझोले शहर के कॉलेज में आजकल कौन पढ़ने आते हैं! वैसे ही स्टूडेंट होते हैं। फिर, लिटरेचर पर तो और भी कम। ज़्यादातर को साइंस ही भाता है। जिनको कहीं भी, किसी भी तरह से दाखिला नहीं मिलता तो वे आर्ट्स लेते हैं। अब तो आर्ट्स का भी दूसरा नामकरण हो गया है हयूमीनिटी। उसमें भी इंग्लिश के साथ भारतीय भाषा का जबर्दस्त कंपीटीशन है। हर कोई चाहता है उसका अपर हैंड हो।
क्या क्या लिए? तो बोलने के लिए कुछ हाथ में होना चाहिए न! जैसे इंग्लिश, इक्नोमिक्स, साइकॉलजी। वाह! क्या बात, बेटा तुम तो सिविल का अभी ए से तैयारी करने लगे। फिर कोई महानुभाव चुपके से सलाह दे देगा, देखो एनसीईआरटी को भी साथ साथ फॉलो करते रहो। इसी पर सारा दारोमदार है। फिर तो क्या, एक से एक महानुभाव आपको प्रशासक बनाकर ही छोड़े। सिर्फ एनसीईआरटी से क्या होता है? ऐसे खोद खोद के सवाल निकलता है कि कोचिंग के बिना कोई गतिए नहीं है। अभी ए से एक गो धर लो। अरे छोड़ो, कोचिंग से कोनो फायदा नै होता है, नहीं तो इलाका में रिटर्न्ड पास्ट ऐस्पिरेंट हर साल ऐसे ही नहीं बढ़ रहा है। पिछले साल परमानंद सर दिल्ली छोड़कर लौट आए हैं, कहते हैं बीस गो उसी के गाइडेंस में निकला है, अभी भी सब गोड़ छूने आते हैं। उसी के पास जाना बेहतर रहेगा। और हाँ, बाकी सब तो ठीक है, मगर सी ग्रास वाला विटामिन टैबलेट भी तुरते शुरू कर दो, मिराकल एनर्जि पिल है। आखिर डेली सत्रह-अठरह घंटा पढ़ना जो है।
बिरले ही होते कि कहते, सर हिन्दी लिए हैं। फिर तो हर कोई नसीहत का दूसरा राउंड शुरू कर देता, क्या किए? कितना भविष्य है? ज्यादा से ज्यादा स्कूल में टीचर ही बनिएगा। उसमें भी कितना कंपीटीशन है! एक स्कूल में बस एक टीचर। और वह भी सरकारी स्कूल। यानि, फिर बीएड फीएड कीजिये तो बात बने। या फिर कोई कहानी वहानी लिखिए तो लिखिए। वैसे, देखिए रहे हैं आज कल लेखक में भी बहुत्ते कंपीटीशन है। उसमें भी इंगलिश ढुक गया है। रानु, गुलशन नंदा का जमाना तो कबका गया। चेतन भगत, अमीश सब इंगलिशे में लिखता है। आपको कौन पूछेगा?
उस दिन सारा मैडम ने अमृतलाल को घेर लिया - “आपके क्लास में स्टूडेंट तो इंगलिश पढ़ते हैं।”
मुस्कुराकर अमृतलाल जवाब दिया – “पढ़ते तो हिन्दी ही हैं पर थोड़ा इंगलिशिया कर पढ़ते हैं।”
“क्या मतलब?” सारा तुनककर पूछी।
“वही, मैं भाव पढ़ाता हूँ। भाषा का क्या है, खुद गढ़ जाती है जब वे सोचने लगते हैं।”
“देखिएगा, यही लक्षण रहा तो आपके स्टूडेंट में कोई आगे चलकर नौकरी भी न पाएगा।” सारा ने चेताया।
“न सही। पर मैं सोचना जरूर सिखा दूंगा। फिर तो क्रेच छूट ही जाएगा। यही उन्हें आगे चलकर अपने मुताबिक स्वनिर्भर भी बना देगा।” अमृतलाल सर हिलाते हुए कहा और क्लास के लिए निकल गया।
सारा मैडम ने भी हाथ झटक जाते हुए अमृतलाल को फबती कसा – “इंग्लिशियाएंगे, बैलगाड़ी में हेड लाइट लगाएँगे। ऑक्स फोर्ड।”
ठीक उसी दिन अमृतलाल ने क्लास लेते हुए कहा – ‘बहुत सी बातों पर कविता हो रही है। दुनिया भर में हर दिन मिलियन मिलियन कवि उद्भव हो रहे हैं। आप भी कोशिश करेंगे तो, आपका भी अभ्युदय हो ही जाएगा। भूख पर, भीख पर, रोटी पर और सीख पर या चाहे फिर किसी चीज पर लिख डालिए, मगर दिल से निकालिए शब्दों को।’
मगर क्लासों को आजकल कौन सिरियसली लेता है। एक तो लोग-बाग क्लास पर आते ही नहीं, उन्हें बंक करना ज्यादा हिरोईक लगता है। इक्का दुक्का एटेंडेंस के लिए आते भी हैं तो, या तो बार बार घड़ी देखते रहते हैं या फिर अपनी साथ वाली या किसी सपने वाली पर कनसेन्ट्रेट करते रहते हैं। तंख्वाह मिलती थी तो क्लास करना था वरना ऐसा लगता भैंस के आगे बीन बजाई हो रही है। फिर एक आध दिन मिजाज अच्छा भी हो जाता। कोई छात्र सवाल भी कर देता। बस एक उसी उम्मीद से अमृतलाल क्लास लेने आ जाता। फिर कभी कुछ पैंतरे भी अपना लेता। जैसे, एक लड़का एक लड़की को काफी देर से देख रहा था। इसी से ध्यान बार बार टूट रहा था। लड़की भी तो गाय न थी। सब समझ रही थी लेकिन गाय बनकर रिझा रही थी।
अमृतलाल से और रहा न गया। उस लड़के के पास ही चला गया। और धीरे से पूछा - "लाईन मार रहे हैं?" लड़का तो मानों जमकर बर्फ बन गया। क्या कहे कुछ समझ ही न पाया।
अमृतलाल फिर धीरे से पूछा - "प्रोपोज करिएगा?" अब तो जैसे हिरिशिमा में ऐटम बम ही गिर गया। सर, सर करने लगा।
अमृतलाल एक नजर देख बोला - "हिम्मत तो करनी ही पड़ती है। टुकुर टुकुर देखने से बस मन ही मन बोलते रहिएगा, मेरा नंबर कब आयेगा, मेरा नंबर कब आयेगा। मगर कभी नहीं आयेगा।" कहकर अमृतलाल वापस आकर पढ़ाने लगा।
"तो, मैं कविता की बात कर रहा था। आज मैं आपको कविता पर लाइव डेमो दिखाऊँगा।" फिर वह उस लड़की को अपने सामने बुलाया और बोला - "आपको एक सिचुएशन दे रहा हूँ, अपना इमेजिनेशन पावर का इस्तेमाल करके दिखाईये। सोचिए कि आप कोई लड़का हैं और आपको एक लड़की खूब पसंद आ गयी। प्रपोज कीजिये।"
लड़की वाकई में गाय न थी। पहले तो थोड़ा सकुचाई फिर बोली - "सर हमको एक गो ऑब्जेक्ट दीजिये।"
अमृतलाल हड़बड़ाया। ये तो उल्टा करेंट मार गई! फिर वह संभलकर बोला - "ऑब्जेक्ट! ऑब्जेक्ट का क्या है, हम ही को मान लीजिये।"
"आप?"
"हाँ क्या फर्क पड़ता है, डेमो ही तो है।" अमृतलाल ने भी आखिर ताल ठोक ही दिया।
"ठीक है, वही सही।" कहकर लड़की थोड़ी देर सोची फिर पोज बनाकर बोली –
"अमृता, अमृता, अमृता, हे मोटी काली फ्रेम वाली, मुझे खूब पता है कि इस फ्रेम के पीछे जो दो चंचल हिरनियाँ हैं, जो हमेशा मेरे दिल में कुलांचे भर्ती रहती हैं, इनसे जरा पूछकर बताओ तो, ये मेरे दिल का ठिकाना देते हैं या नहीं!!"
एक पल को सारा क्लास साइलेंट हो गया। गजबे हो गया। आखिर अमृतलाल ने साइलेंस तोड़ा। उसने ज़ोर से ताली बजाई। सारे क्लास ने साथ दिया।
कुछ देर बाद अमृतलाल ने कहा – “यही है कविता। यही है इमेजिनेशन। अब भाव को अपने हिसाब से शब्दों में सजा लीजिये। फिर वह ब्लैकबोर्ड में लिख डाला।
इन काली फ्रेमों के पीछे
चंचल दो हरिणे
मेरे दिल में हमेशा कुलांचे भरती हैं
बताओ न जरा पूछकर इनसे
मेरे दिल का ठिकाना देते हैं या नहीं!!
एक साथ कई मुँह से ‘वाह’ निकले। थमकर अपने चश्मा को रुमाल से पोछ अमृतलाल उस लड़की को दिखा बोला – “वाह! तो इनका। वैसे कोई इसका जवाब देगा?” बात को आगे ले जा अमृतलाल ने फिर चैलेंज ठोका।
पल भर में सबको जैसे साँप सूंघ गया। कोई आगे न बढ़ा। अमृतलाल कुछ देर रुका। फिर आखिर उस लड़के को ही बुला लिया। वह लड़का एक लंबा समय लेने के बाद आखिर बोर्ड के पास झिझकते, शरमाते आया। अमृतलाल ने ज़ोर से ताली बजाकर स्वागत किया। सारे क्लास ने भी फिर एक साथ ताली बजा चीयर अप किया। आखिर अंदर का प्रतिद्वंद्वी जाग ही गया।
वह भी ऐक्शन ले बोला – “अमृतलाल, ये तुम्हें हिरणी की कुलांचे ही दिखी, द्वंद्व न दिखा? काश कि तुम नदी के उस पार भी देख पाते, कितनी व्यग्र प्रतीक्षा है इधर भी, तुम जान भी पाते।”
फिर एक बार ताली बजी। साथ में हर्ष ध्वनि भी हुई। क्लास जम गया। अमृतलाल उधर मन ही मन हँसते हुए ब्लैकबोर्ड में लिख रहा था।
बस हिरणी की कुलांचे ही दिखी
द्वंद्व न दिखा?
नदी के उस पार
काश कि तुम देख पाते
व्यग्र प्रतीक्षा है कितनी इधर भी
काश कि तुम भी जान पाते!!
अगले कुछ महीनों में ही अमृतलाल के क्लास स्टूडेंट से भरे रहने लगे। खूब सवाल जवाब होने लगे। चर्चा परिचर्चा में खुलकर हिस्सेदारी होने लगी। कब पलक झपकते पिरिएड्स खत्म हो जाते, सब कम समय का रोना रोते क्लास से निकलते। खुशबू बिखरने लगी थी।
कोई मुझे ढंग से सोचना भी सिखाये, बाकी पढ़ने का तो मैं खुद भी पढ़ लूँगा। आखिर जिंदगी का पाठ तो मैं हर दिन पढ़ता हूँ। एक सब्जी वाला भी बीस रुपया का करैला डायबिटीज़ का ज्ञान देकर तीस में बेच देता है। मैं सोचता रहता हूँ, मेरी डिग्रियाँ करैला के भाव बिक गईं।

“लड़कियाँ”

“लड़कियाँ”
एक्सप्रेसो या केप्युचीनो?
यही तो तुम्हारे पहले वाक्य थे मेरे लिए
उधर मैं सोच रहा था 
कोई इतनी भी खूबसूरत होती है क्या!!
ईमानदारी से कहूँ तो कोई उपमा ही न खोज पाया
शायद तुम ताड़ गई मेरे मन की बात को
इतना मुश्किल भी तो न था,
लड़कियाँ मर्दों के इन नजरों को पढ़ पढ़ कर ही बड़ी होती हैं
फिर तुम तो सौ में सौ वाली आइटम थी
आइटम?
तुम्हारा चौंकना मुझे आज भी याद है,
और यह मेरे लिए एक सबक भी कि
लड़कियाँ किसी शो रूम की बनारसी साड़ी या
मिठाई दुकान वाली रसमलाई नहीं होती
न ही खूंटी में बंधी गाय होती है....
तुम्हारे ही कहे वाक्य थे।
आज जब इतने दिनों बाद तुम मिली
और तुमने पूछा, एक्सप्रेसो या केप्युचीनो.......
तो याद तो आना ही था
शायद तुम मेरी नजरों से ही मुझे पढ़ लेती हो
तब ही तो कहे,
लड़कियाँ गूँथा हुआ आटा होती हैं,
एक बार गूँथ गई तो वापस कभी सूखा आटा नहीं बनती
जिंदगी एक सफर है, अनजाना सफर। जब आदमी सोचने लगता है, सब कुछ समझ गया, बड़ा विज्ञ हो गया, तभी प्रकृति हँसती हुई फिर कुछ नया से दो चार करा लेती है। छालावा तो बस छलावा ही रह जाता है। सफर तो चलता ही रहता है।