Sunday, May 21, 2017

"अमृतलाल की अमृता" (कहानी)

"अमृतलाल की अमृता" (कहानी)
हिन्दी टीचर अमृतलाल का उम्र कुछ ज्यादा तो नहीं था, बस दिखता था। मोटी काली फ्रेम की चश्मा और खद्दर का कुर्ता। वह भी सरकारी खादी भंडार से सरकारी रसीद में खरीदी। देखते ही लगता महाशय साठ के दसक में ही लटके हुए हैं। लड़कियाँ भी उसे अमृतलाल के नाम से कम और मुंगेरीलाल के उपनाम से ज्यादा पुकारती थीं। मगर अमृतलाल दिखता भले जो हो, था होशियार ही। इसी बहाने चुपके से आँखों में सपनों के बीज डाल देता। स्टाईल ही कुछ अलग था। गाहे-बेगाहे हिन्दी में इंग्लिश घुसा देता। पूछने पर हँसकर जवाब देता, नदी का गंतव्य सागर होता है, पहाड़ देखकर रुक गई तो झील बन गई और साईड से निकलकर चली तो एक दिन सागर से मिल गई।
वैसे भी मँझोले शहर के कॉलेज में आजकल कौन पढ़ने आते हैं! वैसे ही स्टूडेंट होते हैं। फिर, लिटरेचर पर तो और भी कम। ज़्यादातर को साइंस ही भाता है। जिनको कहीं भी, किसी भी तरह से दाखिला नहीं मिलता तो वे आर्ट्स लेते हैं। अब तो आर्ट्स का भी दूसरा नामकरण हो गया है हयूमीनिटी। उसमें भी इंग्लिश के साथ भारतीय भाषा का जबर्दस्त कंपीटीशन है। हर कोई चाहता है उसका अपर हैंड हो।
क्या क्या लिए? तो बोलने के लिए कुछ हाथ में होना चाहिए न! जैसे इंग्लिश, इक्नोमिक्स, साइकॉलजी। वाह! क्या बात, बेटा तुम तो सिविल का अभी ए से तैयारी करने लगे। फिर कोई महानुभाव चुपके से सलाह दे देगा, देखो एनसीईआरटी को भी साथ साथ फॉलो करते रहो। इसी पर सारा दारोमदार है। फिर तो क्या, एक से एक महानुभाव आपको प्रशासक बनाकर ही छोड़े। सिर्फ एनसीईआरटी से क्या होता है? ऐसे खोद खोद के सवाल निकलता है कि कोचिंग के बिना कोई गतिए नहीं है। अभी ए से एक गो धर लो। अरे छोड़ो, कोचिंग से कोनो फायदा नै होता है, नहीं तो इलाका में रिटर्न्ड पास्ट ऐस्पिरेंट हर साल ऐसे ही नहीं बढ़ रहा है। पिछले साल परमानंद सर दिल्ली छोड़कर लौट आए हैं, कहते हैं बीस गो उसी के गाइडेंस में निकला है, अभी भी सब गोड़ छूने आते हैं। उसी के पास जाना बेहतर रहेगा। और हाँ, बाकी सब तो ठीक है, मगर सी ग्रास वाला विटामिन टैबलेट भी तुरते शुरू कर दो, मिराकल एनर्जि पिल है। आखिर डेली सत्रह-अठरह घंटा पढ़ना जो है।
बिरले ही होते कि कहते, सर हिन्दी लिए हैं। फिर तो हर कोई नसीहत का दूसरा राउंड शुरू कर देता, क्या किए? कितना भविष्य है? ज्यादा से ज्यादा स्कूल में टीचर ही बनिएगा। उसमें भी कितना कंपीटीशन है! एक स्कूल में बस एक टीचर। और वह भी सरकारी स्कूल। यानि, फिर बीएड फीएड कीजिये तो बात बने। या फिर कोई कहानी वहानी लिखिए तो लिखिए। वैसे, देखिए रहे हैं आज कल लेखक में भी बहुत्ते कंपीटीशन है। उसमें भी इंगलिश ढुक गया है। रानु, गुलशन नंदा का जमाना तो कबका गया। चेतन भगत, अमीश सब इंगलिशे में लिखता है। आपको कौन पूछेगा?
उस दिन सारा मैडम ने अमृतलाल को घेर लिया - “आपके क्लास में स्टूडेंट तो इंगलिश पढ़ते हैं।”
मुस्कुराकर अमृतलाल जवाब दिया – “पढ़ते तो हिन्दी ही हैं पर थोड़ा इंगलिशिया कर पढ़ते हैं।”
“क्या मतलब?” सारा तुनककर पूछी।
“वही, मैं भाव पढ़ाता हूँ। भाषा का क्या है, खुद गढ़ जाती है जब वे सोचने लगते हैं।”
“देखिएगा, यही लक्षण रहा तो आपके स्टूडेंट में कोई आगे चलकर नौकरी भी न पाएगा।” सारा ने चेताया।
“न सही। पर मैं सोचना जरूर सिखा दूंगा। फिर तो क्रेच छूट ही जाएगा। यही उन्हें आगे चलकर अपने मुताबिक स्वनिर्भर भी बना देगा।” अमृतलाल सर हिलाते हुए कहा और क्लास के लिए निकल गया।
सारा मैडम ने भी हाथ झटक जाते हुए अमृतलाल को फबती कसा – “इंग्लिशियाएंगे, बैलगाड़ी में हेड लाइट लगाएँगे। ऑक्स फोर्ड।”
ठीक उसी दिन अमृतलाल ने क्लास लेते हुए कहा – ‘बहुत सी बातों पर कविता हो रही है। दुनिया भर में हर दिन मिलियन मिलियन कवि उद्भव हो रहे हैं। आप भी कोशिश करेंगे तो, आपका भी अभ्युदय हो ही जाएगा। भूख पर, भीख पर, रोटी पर और सीख पर या चाहे फिर किसी चीज पर लिख डालिए, मगर दिल से निकालिए शब्दों को।’
मगर क्लासों को आजकल कौन सिरियसली लेता है। एक तो लोग-बाग क्लास पर आते ही नहीं, उन्हें बंक करना ज्यादा हिरोईक लगता है। इक्का दुक्का एटेंडेंस के लिए आते भी हैं तो, या तो बार बार घड़ी देखते रहते हैं या फिर अपनी साथ वाली या किसी सपने वाली पर कनसेन्ट्रेट करते रहते हैं। तंख्वाह मिलती थी तो क्लास करना था वरना ऐसा लगता भैंस के आगे बीन बजाई हो रही है। फिर एक आध दिन मिजाज अच्छा भी हो जाता। कोई छात्र सवाल भी कर देता। बस एक उसी उम्मीद से अमृतलाल क्लास लेने आ जाता। फिर कभी कुछ पैंतरे भी अपना लेता। जैसे, एक लड़का एक लड़की को काफी देर से देख रहा था। इसी से ध्यान बार बार टूट रहा था। लड़की भी तो गाय न थी। सब समझ रही थी लेकिन गाय बनकर रिझा रही थी।
अमृतलाल से और रहा न गया। उस लड़के के पास ही चला गया। और धीरे से पूछा - "लाईन मार रहे हैं?" लड़का तो मानों जमकर बर्फ बन गया। क्या कहे कुछ समझ ही न पाया।
अमृतलाल फिर धीरे से पूछा - "प्रोपोज करिएगा?" अब तो जैसे हिरिशिमा में ऐटम बम ही गिर गया। सर, सर करने लगा।
अमृतलाल एक नजर देख बोला - "हिम्मत तो करनी ही पड़ती है। टुकुर टुकुर देखने से बस मन ही मन बोलते रहिएगा, मेरा नंबर कब आयेगा, मेरा नंबर कब आयेगा। मगर कभी नहीं आयेगा।" कहकर अमृतलाल वापस आकर पढ़ाने लगा।
"तो, मैं कविता की बात कर रहा था। आज मैं आपको कविता पर लाइव डेमो दिखाऊँगा।" फिर वह उस लड़की को अपने सामने बुलाया और बोला - "आपको एक सिचुएशन दे रहा हूँ, अपना इमेजिनेशन पावर का इस्तेमाल करके दिखाईये। सोचिए कि आप कोई लड़का हैं और आपको एक लड़की खूब पसंद आ गयी। प्रपोज कीजिये।"
लड़की वाकई में गाय न थी। पहले तो थोड़ा सकुचाई फिर बोली - "सर हमको एक गो ऑब्जेक्ट दीजिये।"
अमृतलाल हड़बड़ाया। ये तो उल्टा करेंट मार गई! फिर वह संभलकर बोला - "ऑब्जेक्ट! ऑब्जेक्ट का क्या है, हम ही को मान लीजिये।"
"आप?"
"हाँ क्या फर्क पड़ता है, डेमो ही तो है।" अमृतलाल ने भी आखिर ताल ठोक ही दिया।
"ठीक है, वही सही।" कहकर लड़की थोड़ी देर सोची फिर पोज बनाकर बोली –
"अमृता, अमृता, अमृता, हे मोटी काली फ्रेम वाली, मुझे खूब पता है कि इस फ्रेम के पीछे जो दो चंचल हिरनियाँ हैं, जो हमेशा मेरे दिल में कुलांचे भर्ती रहती हैं, इनसे जरा पूछकर बताओ तो, ये मेरे दिल का ठिकाना देते हैं या नहीं!!"
एक पल को सारा क्लास साइलेंट हो गया। गजबे हो गया। आखिर अमृतलाल ने साइलेंस तोड़ा। उसने ज़ोर से ताली बजाई। सारे क्लास ने साथ दिया।
कुछ देर बाद अमृतलाल ने कहा – “यही है कविता। यही है इमेजिनेशन। अब भाव को अपने हिसाब से शब्दों में सजा लीजिये। फिर वह ब्लैकबोर्ड में लिख डाला।
इन काली फ्रेमों के पीछे
चंचल दो हरिणे
मेरे दिल में हमेशा कुलांचे भरती हैं
बताओ न जरा पूछकर इनसे
मेरे दिल का ठिकाना देते हैं या नहीं!!
एक साथ कई मुँह से ‘वाह’ निकले। थमकर अपने चश्मा को रुमाल से पोछ अमृतलाल उस लड़की को दिखा बोला – “वाह! तो इनका। वैसे कोई इसका जवाब देगा?” बात को आगे ले जा अमृतलाल ने फिर चैलेंज ठोका।
पल भर में सबको जैसे साँप सूंघ गया। कोई आगे न बढ़ा। अमृतलाल कुछ देर रुका। फिर आखिर उस लड़के को ही बुला लिया। वह लड़का एक लंबा समय लेने के बाद आखिर बोर्ड के पास झिझकते, शरमाते आया। अमृतलाल ने ज़ोर से ताली बजाकर स्वागत किया। सारे क्लास ने भी फिर एक साथ ताली बजा चीयर अप किया। आखिर अंदर का प्रतिद्वंद्वी जाग ही गया।
वह भी ऐक्शन ले बोला – “अमृतलाल, ये तुम्हें हिरणी की कुलांचे ही दिखी, द्वंद्व न दिखा? काश कि तुम नदी के उस पार भी देख पाते, कितनी व्यग्र प्रतीक्षा है इधर भी, तुम जान भी पाते।”
फिर एक बार ताली बजी। साथ में हर्ष ध्वनि भी हुई। क्लास जम गया। अमृतलाल उधर मन ही मन हँसते हुए ब्लैकबोर्ड में लिख रहा था।
बस हिरणी की कुलांचे ही दिखी
द्वंद्व न दिखा?
नदी के उस पार
काश कि तुम देख पाते
व्यग्र प्रतीक्षा है कितनी इधर भी
काश कि तुम भी जान पाते!!
अगले कुछ महीनों में ही अमृतलाल के क्लास स्टूडेंट से भरे रहने लगे। खूब सवाल जवाब होने लगे। चर्चा परिचर्चा में खुलकर हिस्सेदारी होने लगी। कब पलक झपकते पिरिएड्स खत्म हो जाते, सब कम समय का रोना रोते क्लास से निकलते। खुशबू बिखरने लगी थी।
कोई मुझे ढंग से सोचना भी सिखाये, बाकी पढ़ने का तो मैं खुद भी पढ़ लूँगा। आखिर जिंदगी का पाठ तो मैं हर दिन पढ़ता हूँ। एक सब्जी वाला भी बीस रुपया का करैला डायबिटीज़ का ज्ञान देकर तीस में बेच देता है। मैं सोचता रहता हूँ, मेरी डिग्रियाँ करैला के भाव बिक गईं।

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