Sunday, April 30, 2017

किस्मत का बॉर्डर (कहानी)

किस्मत का बॉर्डर (कहानी)
रिटायर्ड हेडमास्टर पंचानन चक्रवर्ती, एक ही बेटा, अतुल चक्रवर्ती। वह भी सॉफ्टवेयर इंजीनियर। नौकरी मिले दो साल हो गए, हैदराबाद में रहता है। आज आने वाला है। दंपति को हमेशा इसी पल का इंतजार रहता है। इस बार तो थोड़ा स्पेशल है, अगले महीना कोलकाता में ट्रांसफर लेकर चला आयेगा। इसलिए खूब बाजार करके घर लौटे।
थैली से मछली निकाल सौदामिनी देवी बड़बड़ाई – “तुमारा मोति-गोती (मति-गति) तो ठीक है! इतना माछ ले आया।”
“आरे जादा (ज्यादा) कहाँ है? खोखा थोड़ा भाजा खाएगा, थोड़ा झोल खाएगा, मुड़ी घंटो खाएगा, कालिया खाएगा, फिर पातुड़ी खाएगा। फिर कहाँ बचेगा?” पंचानन बाबू फ्रिज में दूसरी सब्जियाँ घुसाते हुए बोले।
“लास्ट टाईम इतना रात जाग के बनाया, सब फ्रीज़ में पड़ा रहा। तुमारा आक्केल (अक्ल) कब होगा?” बड़बड़ाती हुई सौदामिनी देवी काम में लग गई। पता था, सब बनाना ही पड़ेगा मगर खाएगी कुसुम।
कुसुम कहने को नौकरनी है, और नहीं भी है। बातों से लगता है पढ़ना-लिखना जानती है। अखबार भी खूब खोद-खोद कर पढ़ती है। मगर बातें बहुत कम करती है। जितना पूछो उतना ही, खुद से तो बहुत कम, नहीं के बराबर बोलती है। मन में कोई कांटा ही होगा, पर बताती नहीं। मगर बुद्धिमती है, कभी किसी को कोई शिकायत का मौका भी नहीं देती। किसकी बेटी है, कहाँ से आई है पंचानन बाबू को सठीक पता नहीं, बात के ढंग से लगता है उत्तर बांग्ला तरफ वाली है। एक दिन जब सांध्यभ्रमण कर घर लौटे तो पाया कि सौदामिनी ड्राइंग रूम में बतिया रही है कुसुम से। पता चला, अनिल विश्वास ही लेकर आया। बहुत दिनों से सौदामिनी लगी थी – “एक काम वाली चाहिए अनिलदा। आपके गाँव तरफ का कोई हो तो देखिये न। इस बुढ़ापा में कितना परिश्रम कराएंगे।”
“माता-पिता हीन है। उत्तर बंग के गाँव का लेड़की है, मेरा छात्र एक दिन मेरे पास लेके आया। उधर का अवस्था तो मालूम है, एका (अकेला) जीबोन (जीवन) के लिए सेफ नेहीं है। हम तो मुश्किल में पड़ गया। केया करेगा? तभी बौउदी ( भाभी) आपका बात याद आ गया। मेरा छात्र बोला, अच्छा लेड़की है। आपका भी सुविधा होगा, इसको भी सहारा मिल जाएगा। दोनों का ही मंगल होगा।” विश्वास बाबू बोले।
“लेकिन कोई पहचान तो होगा? माँ-बाबा, ग्राम, जिला तो कुछ होगा? पंचानन बाबू ने टोका।
अनिल बाबू कुसुम की तरफ देखे, मानो कहते हों, जवाब दो। दो बड़े-बड़े करूण नेत्र से देख कुसुम धीरे मगर मुलायम स्वर में बोली – “माँ-बाबा का याद नहीं। जब कुछ समझने लायक उम्र हुआ, बूढ़ी मासी, काजोल दास का ही सहारा था। स्कूल में प्यून थीं। एक दिन स्कूल के गेट के सामने मुझे खड़ी पाई। फिर वो भी गुजर गई। मैं अनाथ, फिर से अनाथ हो गई।”
सौदामिनी देवी से रहा न गया। कुसुम के दो दर्द भरे छलक़ते नयन देख ही द्रवित हो गई – “अरे, अरे मन दुखी मत करो। तुमको जब अनिलदा लाया, हमारे लिए यही परिचय यथेष्ट है। लेकिन विश्वास का मर्यादा रखना।” बस बात तय हो गई। पंचानन बाबू कुछ और गहरे में जाना चाहते थे पर सवालों से स्त्री के मन में फिर ठेस लगे, सोच होठ सिल लिए।
कुसुम घर के सारे काम करती। छः महीना होने को आए, कभी कोई कम्पलेन का मौका न दिया, वरन, दोनों वृद्धों के लिए अपरिहार्य ही बन गई। जरूरत का हर सामान कहने से पहले ही हाथ के आगे मौजूद। कुसुम तो जैसे दोनों के लिए वरदान बनकर आई थी। बूढ़ा-बूढ़ी को बस एक ही बात खलता, बातों में बहुत ही कंजूस थी।
सौदामिनी हांक लगाई – “कुसुम!”
कुसुम हाजिर हुई। सौदामिनी को अपना गुस्सा निकालने का मौका मिल गया – “हमारा मुख (चेहरा) देखने से क्या होगा? सुना नेहीं, खोखा आज आने वाला है? इधर देखो, तुमारा काकाबाबू कितना माछ ले के आया है। आभी एई (ये) बूढ़ा वयस में हामसे रान्ना (रसोई) कराएगा क्या?”
कुसुम मुस्कुराई। यथावत कुछ बोली नहीं। काम में लग गई। यही उसकी खासियत थी। घंटे भर में सब तैयार हो गया। दोनों बूढ़ा-बूढ़ी गदगद। पंचानन बाबू बोले – “आरे देखा, सब कितना जल्दी कर दिया, तुम तो बस झगड़ा करता है।”
सौदामिनी देवी बात को नजरअंदाज करती बोली – “आरे तुम आभि तक चान नेहीं किया (अभी तक नहाया नहीं)? जल्दी करो। अभी खोखा का आने का टाईम तो हो गया।” पंचानन बाबू को धकेल कर ही बाथरूम में भेजी। वापस आ कुसुम से पूछी – “सब पद (व्यंजन) बनाया तो?”
“हाँ।” वही संछिप्त जवाब।
“झोल, पातुड़ी, कालिया सब बनाया? सौदामिनी मुस्कुराकर हाँ में सर हिलाई।
“ठीक, ठीक, अब जाकर दोतला (दोमंजिल) में खोखा का कमरा ठीक कर दो। आता ही होगा।” सौदामिनी देवी व्यग्र होकर बोली।
कुसुम छत पर गई। इसी पर उसे भी सीढ़ीघर में रहने की जगह मिली थी। उस पार का कमरा खोखा बाबू के लिए था। कमरा तो साफ ही था। कुसुम ने बिस्तर को झाड़ा और फिर से एक बार सब चेक कर लिया। बिस्तर, टेबिल, अलमारी और पानी सब कुछ ठीक-ठाक। फिर वह टेबिल पर रखे खोखा के फोटो को गौर से देखने लगी। मुस्कुराता चेहरा, कितना आत्मविश्वास से भरा!! आँखें तो जैसे एकदम से बोलती सी!!
अचानाक नीचे कुछ शोर हुआ। यानि खोखा बाबू आ ही गए। कुसुम ने जल्द से एक बार फिर से चारों तरफ देख, दरवाजा बंद कर तेजी से नीचे सीढ़ी की तरफ गई। सीढ़ी में ही नजरें चार हो गई। उफ! यह तो फोटो से भी ज्यादा हैंडसम है। कुसुम का दिल तेजी से धड़कने लगा। वह बड़ी-बड़ी आँखों से निश्छल देखती लगभग खो सी गई। अतुल भी कुछ कम हैरान न हुआ। माँ ने फोन में कुसुम के बारे में कहा तो था, मगर कम ही कहा था। इस साधारण सी साड़ी में भी कुसुम असाधारण थी। आँखें तो जैसे सम्मोहिनी की तरह थी, नजर हटाये न हटती थी।
कुछ देर बाद जब ख्याल टूटा, कुसुम का चेहरा शर्म से लाल हो गया। वो जल्द ही किनारे से नीचे चली गई। अतुल भी ऊपर उठ गया।
शाम को फिर मुलाक़ात हुई। कुसुम चाय लेकर आई। मगर बातें न हुई। कुसुम लगभग भागती हुई ही कमरे से बाहर निकाल आई।
आखिर रात भी हुई। कुसुम अपने कमरे में आई। यही उसका अपना समय था। मगर, आज तो जैसे कुछ भी नियंत्रण में न था। नींद भी जैसे कोसों दूर थी। घंटे भर इधर-उधर करने के बाद भी दिल का हलचल कम न हुआ। आखिर कुसुम सीढ़ीघर से छत में निकल आई। बड़ा सा चाँद पीपल के पेड़ के पीछे उग आया था। पवन हिलोरें ले रहा था। वह अपने ही लगाए गुलाब, गेंदा के पौधों पर हाथ फेरने लगी। उसे बड़ा शुकून सा लगा। मानों पौधे बाते कर रहे हों।
अचानक कोई पीछे से पूछा – “कौन हो तुम?”
कुसुम चौंककर पीछे पलटी। अतुल था। वह कई सेकेंड उसे चाँद के रोशनी में देखती रही। चाँद के दूधिया रोशनी में सफ़ेद कुर्ता-पैजामा और सफ़ेद लग रहा था। कुसुम धीरे से बोली – “कुसुम।”
“ये तो नाम है। इस नाम के अलावा क्या हो तुम?” अतुल कुसुम के आँखों में झाँकते हुए पूछा।
“नाम से ही तो पहचान है।” कुसुम ठहरकर बोली।
“पहचान तो उन किताबों से भी है, जो तुम्हारे सीढ़ी घर में है। पहचान तो तुम्हारे उस गुनगुनाते पीलू राग से भी है जो तुम चाय देने के बाद इन फूलों के क्यारियों में पानी डालते हुए गुनगुना रही थी। ये सरगम तो गुरु के सिखाये ही मिलते हैं।” अतुल फिर कुसुम के आँखों में झाँक कर बोला।
कुसुम के आँखों में डर साफ झलका। फिर भी वह बोली – “दो अक्षर पढ़ने का सौभाग्य मिला। कुछ राग, कुछ गीत भी कभी सीखी थी।”
“तुम कुसुम ही हो या कुछ और?” अतुल फिर ज़ोर देकर पूछा।
कुसुम और डर गई। उसके चेहरे में सवाल उभरे।
अतुल फिर बोला – “जानती हो, मुश्किल में मनुष्य का असली स्वरूप उजागर हो जाता है। शाम को जब तुम्हारे उंगली में गुलाब के कांटे चुभे तो तुम्हारे मुँह से निकला – “हाय अल्लाह!!”
जिस चीज को छुपने के लिए इतनी कसरत थी, वही एक रात में ही उजागर हो गई। कुसुम के लंबे साँस निकाल आए। वह छत के दीवार पर पीठ टिकाकर धीरे से बोली – “मनुष्य हिन्दू है, मुसलमान है, क्रिश्चियन है, सिक्ख है, ब्राह्मण, शूद्र, सिया, सुन्नी, कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, सब है। नहीं है तो मनुष्य ही नहीं है। उसका परिचय मनुष्य होने के अलावा सब है।”
अतुल चौंका। वह धीरे से बोला – “कुसुम तो हिंदुओं का नाम होता है।”
“खोखा बाबू आप भी तो उस मौलवी की तरह ही बोल रहे हैं।”
“क्या हुआ था?”
“आप बड़े शहर के लोग हैं। छोटे गाँव के पॉलिटिक्स क्या समझेंगे। ऊपर से अगर यह पड़ोस का मुल्क हो तो समझना और भी मुश्किल है। उसने भी अब्बा को यही कहा, कुसुम नाम से कौम का हिसाब बिगड़ जाता है। फिर फरमान सुना दिया, रहमान साहब नाम दुरस्त कर लीजिये। अब्बा ने मना कर दिया। अम्मा ने बड़े प्यार से नाम रखा था। अम्मा तो गुजर गई, याद के तौर पर नाम अब्बा को बड़ा प्यारा था। आखिर उनलोगों ने फरमान के खिलाफ जाने के कारण अब्बा को पचास कोड़े सजा दिये। इसी ने अब्बा के जान ले लिए।”
“फिर?” अतुल पूछा।
“अब्बा के मृत्यु के बाद मैं जान गई अकेली लड़की एक शिकार होती है और चिकने-चुपड़े पालिश जुबान वाले हर रसूखदार शिकारी। दिन के उजाले में जो सामाजिक मर्यादा की बड़ी-बड़ी बात करते हैं रात के अंधेरे में वही लोग दूसरा रूप धर लेते हैं। एक झटके में मेरी सारी ज़िंदगी ही बदल गई। बचना प्राय मुश्किल हो गया। आखिर एक दिन मैं घर से भाग ही गई। अब्बा से कभी सुना था, मछुआरे छुप-छुपकर रात के अंधेरे में बड़ा नाला पार कर इंडिया जाते थे। फिर लौट भी आते थे। मैं भी उनके साथ जुड़ गई।” कुसुम कहकर दम लेने लगी।
“कैसे? नजर बचाना इतना आसान है? दोनों तरफ के गस्त के पुलिस?” हैरान अतुल पूछा।
“पपीता पेड़ के पत्तों की डन्टी देखी है? अंदर से खोखला होता है। इसे पानी के अंदर डूब कर तैरते वक्त साँस लेने के लिए यूज करते हैं। बचपन में हम तैरते हुए ऐसे बहुत से खेल खेलते थे। तब न जानती थी, यही एक दिन काम आयेगा। मैं भी इसी के सहारे इंडिया आ गई। यही किस्मत में बदा था। आपलोगों से सच ही बोली थी। मासी से मुलाक़ात स्कूल के गेट के पास ही हुई थी। मगर झूठ इतना ही था कि मैं इतनी बच्ची न थी। मासी ने ही सिखाया था, ऐसा ही कहना। मासी ने सहारा दिया। कुछ पढ़ाया, लिखाया। गीत सिखाया। मगर किस्मत यहाँ भी नदी की तरह मुड़ गई, नदी की तरह किस्मत का भी कोई बार्डर नहीं होता। आपलोगों के पास आ गई।”
अतुल जैसे स्तब्ध हो गया। शब्द मस्तिष्क से उड़न-छू हो गए।
कुसुम ने फिर कहना शुरू किया – “बहुत बार मन में आया, सच कह दूँ। इतना विश्वास, इतना प्रेम देखकर मन में कचोटता, सच छुपाकर अपराध कर रही हूँ। मगर मजबूर ही थी। आपके माँ-बाबा शायद इस सच को स्वीकार ही कर न पाये। एक बार आपके बाबा को अटैक हो भी चुका है। मुझपर इतना भरोसा करते हैं, अगर सच जानेंगे तो कहीं बड़ी क्षति न हो जाय। इसके अलावा एक स्वार्थ मेरा भी है।”
अतुल चौंका – “स्वार्थ? कौन सा स्वार्थ?”
कुसुम की आँखें भर आई। उस चाँदनी रात में भी अतुल ने पानी से चमकते आँखों को देखा। छलछलाते आँखों कुसुम फिर बोली – “माँ का प्यार कभी न मिला। किस्मत से एक मासी भी मिली मगर वह कभी माँ बन न पाई। कठोर थी। उसका प्रेम निस्वार्थ न था, चाहती थी मैं पढ़-लिख उसके बुढ़ापे का सहारा बनूँ। माँ के कोमल भाव का स्वाद तो मैंने यहाँ जाना। निस्वार्थ प्रेम का ज्ञान तो यहीं हुआ। करुणा से भरा हृदय क्या होता है मैं यहीं जान पाई। किसी चाह के ध्यान में कुछ करना और बिना किसी प्रत्याशा के ही प्रेम लुटाना, यहाँ न आती तो यह फर्क कभी जान ही न पाती। यह छ: मास मेरे जीवन के बाकी जीवन से पलड़ा में बहुत भारी है। जितना हो सके इस प्रेम को हृदय में भर लूँ, यही मन में होता। इसी लोभ में जानबूझ कर बहुत कम बात करती। भय से ही अपना अस्तित्व गोपन करती। परंतु हाय रे भाग्य!! आपने पहली रात ही झूठ का पर्दा छिन्न-भिन्न कर दिया। ठीक है, मैं भूल ही चुकी थी हर किसी को सपना देखने का अधिकार नहीं होता। खोखाबाबू, मैं सवेरे ही निकल जाऊँगी। बस, आपसे एक प्रार्थना है, सच को अपने तक ही रखना। चाहे कुछ भी कह दीजिएगा, बस माँ-बाबा से यह सब न कहिएगा।” कहकर कुसुम वहीं बैठ सिसक सिसक कर रोने लगी।
अतुल उसे रोने दिया। मन को हल्का होने दिया। बहुत देर बाद जब कुसुम के मन बोझ हल्का हो गया तो अतुल फिर उसे गंभीरता से पुकारा – “कुसुम।”
कुसुम नजर उठाकर देखी।
अतुल उतनी ही गंभीरता से बोला – “ठीक है, मैं माँ-बाबा से नहीं बोलूँगा। मगर तुम्हें झूठ बोलने के लिए सजा तो मिलेगी ही।”
कुसुम भी दृढ़ता से बोली – “मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूँ। कहिए तो अभी ही चली जाऊँगी। भोर तक का भी प्रतीक्षा नहीं करूंगी।”
अतुल ने फिर पूछा – “वचन देती हो?”
कुसुम ने अपने बड़े-बड़े नैन अतुल पर टिका दिये और बड़े दृढ़ता से हाँ में सर हिलाया।
अतुल कुछ देर रुका फिर उसी तरह कुसुम के दृढ़ आँखों में झाँकते हुए कहा – “तुम्हें श्रीमती कुसुम चक्रवर्ती बनकर जीवन पर्यन्त माँ-बाबा की सेवा करनी पड़ेगी।”
एक पल को कुसुम कुछ न समझ पाई। फिर जब समझी तो चौंककर बोली – “खोखा बाबू!!!” उसके आँखों से फिर अश्रुधरा बहने लगे।
अतुल मुस्कुराता हुआ अपने बाँह फैला दिया। कुसुम उसके सीने से लग गई।
जिस कालखंड में हम जी रहे है वह खुद में महत्वपूर्ण है। परंतु यही अंतिम सत्य नहीं है। जैसे, अतीत के हस्ताक्षर बुद्ध का, ईसा का, मूसा का या फिर नानक का ही अंतिम कालखंड नहीं था। जीवन अपने गति चलता रहेगा, नया आता रहेगा। उसी तरह कभी दीवारें उठेंगी, वाघा या इच्छामती के इस पार और उस पार जिंदगियाँ बदल जाएंगी। फिर कभी दीवारें गिर भी जाएंगी, बर्लिन मुस्कुराएगा।
भविष्य में मगर दो चर सदैव रहेंगे। नर-नारी।

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